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लठैत की मार !

मै लगातार दिल्ली मै हुई वकील और पुलिस के बीच झगड़े की वारदात पर ग्रुप मेंबरान के विचारों को पड़ रहा था और मुझे लगा कि मुख्य विषय पर चर्चा नहीं हो पा रही। मुझे हमेशा महसूस हुआ है कि मनुष्य को समाज में रहने के लिए शालीन, सहिष्णुता और सामंजस्य बिठा कर रहना चाहिए चाहे वह जिस भी सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर रहा हो। मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के बीच में नहीं आने चाहिए क्यों की मनुष्य एक रंगमंच कर्मी है। जन्हा तक वकील का प्रश्न है तो वह सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य करता है और उसे समाज को चलाने, लोगों के कार्य और व्यवहार के बीच में सामंजस्य बनाने की कला का माहिर होना चाहिए परन्तु सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य बहुत ही तप, मनन और साधना का है जो कि सामान्यतः मनुष्य के बस की बात नहीं। यह कार्य ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और समाजशास्त्री का है। जंहा तक पुलिस का प्रश्न है वह मनुष्य, समाज और कानून का रक्षक है। परन्तु दिक्कत दोनों जगह या कन्हे हर जगह तब पड़ती है जब मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों में आते हैं। पुलिस को लाठी और बंदूक दी जाती है तथा शारीरिक रूप से

गाहे बगाहे स्वतंत्र !

मनुष्य के जीवन का सबसे अनमोल उपहार "स्वतंत्रता" है। स्वतंत्रता कि मूल भावना बहुत ही व्यापक है जो कि लोगो में समानता, समान अवसरों कि उपलब्धता, जीवन की सुरक्षा, सामाजिक न्याय आदि जैसे मूलतत्तों को समाहित करते हुए जीवन जीने की स्वतंत्रता, विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार हम भारतवासियों को हमारा "संविधान" देता है और आज के हि  दिन यानी २६ नवंबर सन १९४९ को  हम लोगों ने इसे अपनाया था। और क्यों ना अपनाते आखिर हजारों वर्षाें के बाद हमें राजाओं, मुस्लिम आक्रांताओं ,  इस्ट इंडिया कंपनी और अंत में ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी व भय से   १५ अगस्त सन् १८४७ से स्वतंत्रता जो मिली थी। आज सारा देश भारतीय संविधान को अपनाने की खुशी से सराबोर हैं भारतीय संविधान के प्रसंशा में आज बड़े बड़े कसींदे पड़े जा रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित  "संप्रभु" शब्द हमें बाहुबली होने का अहसास कराता है है क्यों कि लोकतंत्र में जनता के द्वारा जनता का शासन जो होता है। भारतीय संविधान को अपनाने के साथ ही क्या आप भी खुद को शासक समझने लगे?                           

स्वराज कि दरकार !

स्वतंत्रता दिवस मे जब राष्ट्र स्वयं की स्वतंत्रता कि द्वारख़ास्त लगा रखा हो और 135 करोड़ देशवासी स्वतंत्रता के जश्न में गुमान हो, तो स्वतंत्रता शब्द् की खुद कि स्वतंत्रता अपरिहार्य हो जाती है।  हम जश्न मना रहे हैं 15 अगस्त 1947 के सत्ता हस्तांतरण का जब ब्रिटिश हुकूमत ने देश की बागडोर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौपी थी और जश्न मे हम भूल गए थे की ब्रिटिश हुकूमत ने 14 अगस्त को भारतवर्ष के दो टुकड़े किए और पहला टुकड़ा पहले मोहम्मद अली जिन्ना के हाथों में सौंपते हुए बोला कि लो अपना पाकिस्तान, फलो फूलो और ऐश करो और दूसरा टुकड़ा पंडित नेहरू को सौंपते हुए बोला कि लो इंडिया खुद के लिए खुद से संघर्ष करो और वह संघर्ष हम आज भी कर रहे हैं।  हम आजादी के जश्न में यूं गुमान है की हमें ज़ैसे हमारी स्वतंत्रता मिल गई, पर भूल गए की भारतवर्ष अब इंडिया और पाकिस्तान दो मुल्क जो एक सभ्यता, एक संस्कृत कि धरोहर हैं, परंतु विभाजन में हिंदू - मुस्लिम में बटा और धर्म के आड़ पर कत्लेआम हुए। भारतवर्ष खुद के विभाजन को आज भी मूकदर्शक की तरह ताकता है और उसकी हम क्यो सुने, हम स्वतंत्रता के नशे में जो गुमान हैं और देश कि

जब समाज ही लचर है !

जब समाज  ही लचर है ! "महिला शस्त्रीकरण" और "महिला सुरक्षा", दो विरोधाभाषी तथ्य, जो की आधुनिक भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग किए जाने वाले वाक्यांश हैं। उदारीकरण और खुला बाज़ार के इस दौर में, देश के हमारे तथाकथित राजनेता और अर्थशास्त्री, भारत को २१वीं सदी में विश्व का उन्नत राष्ट्र, जो कि विश्व राजनीत की दशा और दिशा तय करेगा के स्वप्न दिखा रहें है तथा ऐसा दावा कर रहें। और दूसरी तरफ हमारे तथाकथित समाजशास्त्री, राजनैतिक विश्लेषक व हिंदुत्व के प्रवर्तक - विश्व पटल में, भारत को विश्वगुरु बनने का दावा पेश कर रहें हैं। इन सब दाओं और प्रतिदावों के बीच मैं इक पल मुकदर्शक क्या बना, की देश के तथाकथित पंडा खुद  को देश का तारण हार बताने लगे। मै अकेले मूकदर्शक नहीं बना, आप भी तो खामोश हैं ! आखिर हम सब क्यों न मूकदर्शक बने, हमे भी तो इन तथाकथित सामाजिक ठेकेदारों द्वारा कही गई बातों से  दिल को सुकून मिलता हैं। आखिर हमें भी तो स्वप्न लोक में जीने की आदत है और खुली आंखों से  दिन में हम सब मुंगेरीलाल के हसीन सपने जो देखते हैं। सटीक शब्दों में कहें तो हम सब इन सामाजिक  पंडो के  "जजमा

"दहेज का बैण्ड-बाजा"

"दहेज का बैण्ड-बाजा" "आज मेरे यार की शादी है, यार की शादी है मेरे दिलदार की शादी है....." के गाने कि धुन में "बैण्ड- बाजा" संग डांस शुरू  किया मैं, वक्त था  ग्रेजुएशन का फ्रेंड की शादी में , परंतु  लॉ  करते करते शादी में "डी.जे." से टपक पड़े दिलेर मेहंदी और डांस के बोल थे "हो गई तेरी बल्ले बल्ले, हो जाएगी बल्ले बल्ले....."। बस दो दोस्तों के शादी में 5 वर्षों का अंतर ही  "बैण्ड- बाजा" की धुन को बदल कर "डी.जे." में गाने के बोल ला दिए, दौर था सन् 1993 से 1999 का। क्यों ना  बदले "बैण्ड- बाजा" की धुन, "डी.जे.' के बोल, आखिर "बैण्ड पार्टी" दहेज के पैसे से किया गया था और दूल्हे का तिलक लाखों रूपए का जो चड़ा था।  बढ़ते दहेज की धमक "डी.जे." के साउंड और गाने के बोल में स्पष्ट झलक रहे थें। हम सब दोस्त "डी.जे." के लाइटों के बीच डांस में मदमस्त थे और शादी के जश्न का नजारा "जनमास" से "द्वारचार" के बीच दिखता, जो कि चंद फलांगो तक की दूरियां कों घंटों में तब्दील कर र

"कोरोंना भी परेशान है"

"कोरोंना भी परेशान है"    संकट के दौर में एक जिम्मेदार शहरी कि प्रतिक्रया व उसमे निहित मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति , सामाजिक औ‌र मानवीय जिम्मेदारियों को‌ निभाने कि ललक ही उस शहर को सभ्य, उन्नत व समर्थ बनाती हैं। किसी भी राष्ट्र का "मानव विकास सूचकांक" कि टेबल में उसकी उपस्थित क्रम ही उस राष्ट्र के नागरिकों की मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक व नागरिक दायित्वों के निर्वहन में उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। जब राज्य समर्थ शहरियों द्वारा संचालित होता है तभी वह प्राकृतिक, सामाजिक व संवैधानिक न्याय प्रदान कर पाता है। राज्य की क्षमताओं की अग्नि परीक्षा विपत्ति काल में सरकार द्वारा जन- धन की समस्याओं के समाधान में परिलक्षित होता है। निश्चिंत मत बैठिए, देश कोरोना महामरी से ग्रसित है। सरकार अग्नि परीक्षा से गुजर रही है और अब राष्ट्र का इम्तिहान है।                                              और दुनिया के स्वयंभू जो " प्रकृति" को धता बता कर, खुद को खुदा बना बैठे थे, महामारी के इस दौर में कितने लाचार हैं । हमे क्या करना खुदा की खुदाई से जब "खुदा" खुद से

टूटते परिवार- जुड़ते लोग

जब पुरुष प्रधान समाज में पुरुषार्थ खो चुके हो पुरुष, व पुरुषों की पारिवारिक व सामाजिक निर्णय लेने की क्षमता न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई हो, तो परिवार,‌ समाज व परंपराएं, पुरुषों के कमजोर वाजू को छोड़ कर, महिलाओं के मातृत्व दामन को थाम लेती हैं। आप घबराइए मत और पछताए  मत,  क्योंकि पुरुष खुद ही परिवार कि बागडोर ढीली की है जिसने महिलाओं को मौका दिया है और अब आप ज्यादा सुरक्षित है। हमारी नाफरमानी से संक्रमण काल से गुजरता हिंदू समाज और दम तोड़ती परंपराएं, राष्ट्रीय संस्कृति और विरासत को दो राहे पर खड़ी कर दी है। मुक़दमा दर्ज है समाज की अदालत में जन्हा पर हम सब गुनहगारों कि भांति कटघरे  में खड़े हैं। आज अदालत में मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त है।  गवाही आज समाजिक मर्यादा कि नाफरमानी का और  क्यो न चले मुकदमा ? आज हम मानवीय संवेदना हीन हो गये हैं और सामाजिक मर्यादा तार तार हो रही हैं। समाज कि ठेकेदारी मे हम भूल गए कि परिवार टूट रहे है और टूटते परिवारों  से हम समाज जोड़ रहें है।  आप का तो  पता नहीं, परन्तु टूटते परिवारों से समाज जोड़ने का प्रयोग मुझे अचंभित करता है। सच पूछिए तो मुझे यह प्रयोग डाइजेस्ट