गाहे बगाहे स्वतंत्र !

मनुष्य के जीवन का सबसे अनमोल उपहार "स्वतंत्रता" है। स्वतंत्रता कि मूल भावना बहुत ही व्यापक है जो कि लोगो में समानता, समान अवसरों कि उपलब्धता, जीवन की सुरक्षा, सामाजिक न्याय आदि जैसे मूलतत्तों को समाहित करते हुए जीवन जीने की स्वतंत्रता, विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार हम भारतवासियों को हमारा "संविधान" देता है और आज के हि  दिन यानी २६ नवंबर सन १९४९ को  हम लोगों ने इसे अपनाया था। और क्यों ना अपनाते आखिर हजारों वर्षाें के बाद हमें राजाओं, मुस्लिम आक्रांताओं ,  इस्ट इंडिया कंपनी और अंत में ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी व भय से   १५ अगस्त सन् १८४७ से स्वतंत्रता जो मिली थी। आज सारा देश भारतीय संविधान को अपनाने की खुशी से सराबोर हैं भारतीय संविधान के प्रसंशा में आज बड़े बड़े कसींदे पड़े जा रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित  "संप्रभु" शब्द हमें बाहुबली होने का अहसास कराता है है क्यों कि लोकतंत्र में जनता के द्वारा जनता का शासन जो होता है। भारतीय संविधान को अपनाने के साथ ही क्या आप भी खुद को शासक समझने लगे? 
                             असलियत में आज का दिन हम जैसे वकील, जिनके पूर्वज, जो कि तथाकथित संविधान के लेखक थे कि विद्वता के पर इतराने का दिन है। और खुद को करोड़ों भारतवासियों का भाग्यविधाता बताने का दिन। और क्यों ना हो आखिर इतनी मेहनत और कुशलता के साथ पूरे विश्व के संविधानों की नकल जो हमारे तथाकथित कानून ज्ञाताओं ने कर के, विश्व का सबसे विशाल संविधान जो बनाया था।
                                यह बात और है कि २६ जनवरी १९५० के दिन जब इसे देश में  प्रवर्तित किया गया तो एक वर्ष के अंदर संविधान संशोधन आ गया। दुर्भाग्य से कुछ अनपढ़ जनता के प्रतिनिधि, संविधान की क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिए, तो बड़ी कुशलता से हमारे विद्वान प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें डांटते हुए कहा कि तुम भारतीय गंवार, जाहिल, अनपढ़ व मूर्ख लोग क्या जानो कि संविधान क्या होता है । हम सभी संविधान के निर्माता कानून की सबसे प्रतिष्ठित बैरिस्टर की डिग्री धारण करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए हैं। विदेशों में जाकर कानून कि पढ़ाई की है।  विश्वाश ना हो तो हमे देखो कि  हम कितने सभ्य है जो सोते वक्त भी कोट - पैंट - टाई- जूते पहने हुए है और तुम नंगे - पुंगे लोग, जो कि फटे -  पुराने कुर्ता परदनी पहने हुए हो कानून और संविधान की बाते करते हो।  जाहिल और गंवार कहीं के, तुम्हारी यह मजाल की हमारे द्वारा लिखे संविधान पर प्रश्न करो। तुम्हे पता नहीं की संविधान में संशोधन इस बात का प्रतीक है कि भारतीय समाज बहुत तेजी से विकास कर रहा है जिससे संविधान लागू होने के एक वर्ष के अंदर ही  संशोधन की जरूरत आ पड़ी। और आजतक में संविधान में सैकड़ों संशोधन हों चुके हैं। हमें क्या, समाज रोज बड़े व इसकी जरुरते खूब बड़े ताकि हम जैसे तथाकथित विद्वान कानून विशेषज्ञ को संविधान के नए अनुच्छेदों की ड्राफ्टिंग करने का मौका मिले। संविधान संशोधन को सदन से पास होने के बाद उसे सुप्रीम कोर्ट ने चैलेंज करने का धंधा मिले और हमारी वकालत चल निकले, आखिर पापी पेट का सवाल है । देश व संविधान जाए भाड़ में मुझे क्या करना मै तो वकील हूं। समाज और देश स्थिर, शांत व खुशहाल रहेगा तो मेरे बच्चों का पेट कैसे भरेगा। मै तो चाहता हूं कि समाज में ऐसा कानून हों जो कि लोगों के बीच झगड़ा, असंतोष, शोषण, व अन्याय बढ़ाने में मदद करे और लोग कोर्ट में न्याय की दुहाई देने के लिए मुझें वकील नियुक्त करे और मै भी खूब अनाप सनाप  पैसे कमाऊं अपने मुवाकिलों को मूर्ख व गुमराह करके।  
                 क्या हुआ आखिर हमारे पूर्वज  तथाकथित विद्वान वकील जों संवैधानिक ढांचा व कानून की धाराएं देश को चलाने के लिए बनाई हैं वो तो मुझ जैसे लाखों वकीलों को पेट भरने के लिए ही तो हैं। मै बैरिस्टर की डिग्री नहीं धारण की तो क्या हुआ भारतीय विधायिका द्वारा पारित एडवोकेट एक्ट के अंतर्गत स्थापित बार कौंसिल ऑफ इंडिया द्वारा मान्यता प्राप्त रीवा जिले में स्थापित टी.आर. एस. कॉलेज से बहुत ही चालाकी व दृढ़ता के साथ परिक्षा में नकल करके, फिर परिक्षा की कापी बनवा कर वकील जो बन गया हूं। 
                       मुझे नेहरू बहुत पसंद है, इसलिए नहीं कि वो चाचा नेहरू हैं, और न ही इस लिए की वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे, बल्कि वो हम वकीलों के पूर्वज जो ठहरे और मोतीलाल नेहरू, जो प्रख्यात वकील थे के पुत्र थे।  मोतीलाल नेहरू ने अपने वकालत के पैसों का बहुत ही उम्दा तरीके से उपयोग किया था और और अपने बेटे को,  महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की स्वतन्त्रता कि अगुवाई  कर रही कॉन्ग्रेस पार्टी में प्रथमपन्ति का नेता बनवा दिया और आखिर में वो देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। मुझे तो वकालत के पैसा का इससे बढ़िया उपयोग का उदाहरण इतिहास में कभी नहीं मिला और मै भी कुछ इसी तरह से अपने बच्चों के लिए सोचता हूं। आप किस उलझन में पड़ गए ? क्या सोच रहें है कि आप तो वकील नहीं है और आपका पैसा क्या इतनी मजबूती से काम करेगा। सच पूछिए तो, यह तो, मुझे भी नहीं पता और पता भी होगा तो मैं नहीं बताऊंगा क्यों की मै ठहरा वकील। इस तरह कि कुटिल सलाहों का तो ही मैं पैसे लेता हूं, नहीं तो अपने बच्चों को  चाचा नेहरू की तरह कैसे बाना पाऊंगा। 
                      आप सब मुझ पर‌ हस रहे हैं कि मैं कितना बड़ा नकलची हूं।‌विश्वास कीजिए नकल करना हमारे डि.एन.ए. में हैं और इसमें मेरा कोई दोष नहीं। मैने तो सिर्फ वकालत कि परिक्षा में नकल कि है, यहां तो  मेरे पूर्वज तथाकथित कानून विशेषज्ञों ने तो‌ हजारों वर्ष कि गुलामी से मुक्ति दिलाने व लोकतंत्र कि स्थापना करनेवाले संविधान को ही नकल करके लिख दिया। आखिर ऐसा क्यों न हो,  हम लोग तो नकलची जो ठहरे और अंग्रेजों ने सिर्फ हमे नहीं बल्कि हमारे मानसिकता को भी गुलाम बना दिया है। हम सभी पश्चात सभ्यता के अनुकर्णी हैं या सीधे शब्दों में कहें कि हम सब नकलची हैं और हमारी खुद की अक्ल घांस खाने गई है। 
                              भारतीय संविधान में हजारों खूबी है और इतना विशाल है कि आप जितनी चांहे व्याख्या कर लें, समय और कागज कम पड़ जाएगा पर व्याख्या नहीं ख़तम होगी।  हो भी क्यों न इसमें जो इतने सारे छिद्र हैं कि उन्हें भरने के लिए संसद के हर सत्र में कोई न कोई संशोधन या विधायक आता है ।और तो और सुप्रीमकोर्ट में तो आजकल हमेशा ही संविधान पीठ बैठी रहती है संवैधानिक मामलों की सुनवाई व व्याख्या के लिए। मुकदमों का अंबार हैं और मै यह सब देख कर मैं बहुत खुश और व्यस्त हूं और क्यों न हूं वकील जों ठहरा। लोग परेशान होगे, सामाजिक अन्याय बढ़ेगा तभी तो मेरी वकालत चलेंगी और मै अपने कुटिल सलाहों और कोर्ट में कानूनी तर्क देकर खूब लूट पाट कर सकूंगा। मुझे क्या लोकतंत्र बचे या न बचे, सामाजिक न्यायिक हों या न हो, लोगों की स्वतन्त्रता कायम रहे है छिन जाए मुझे क्या करना मै तो संविधान दिवस की पार्टी में पकौड़े कचोड़ी उड़ा रहा हूं और अपने सफलता में मगरूर हूं। आखिर महामहिम राष्ट्रपति महोदय कोविंद जी आज सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में मुख्य अतिथि हैं। कोविंद जी भी बहुत प्रसन्नचित दिख रहें और उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि वह सुप्रीकोर्ट में चीफ़गेस्ट है क्यों की वो भी कभी यंहा दोयम दर्जे के वकील थे और उन्हें कोई पहचानता भी न रहा होगा। परन्तु आज तो ठाठ हैं उनके और क्यों न हों आखिर महामहिम है। जांहा जज  और सीनियर एडवोेट उन्हें किसी जमाने में घास भी नहीं डालते थे आज ओ सभी योर एकसेल्सनसी कहते हुए थक नहीं रहें।
            इस देश की अजीब विडम्बना है जो विद्यार्थी सबसे ज्यादा दिमाग रखता है वह इंजीनियर बन जाता है, जो मेहनती होता है वह रात दिन पढ़ के डॉक्टर और जो माध्यम होता है वह डॉक्टरेट/ पीएचडी की उपाधि लेकर टीचर बन जाता है। जो मेहनती और जुनूनी होता है वह सरकारी अफसर या कहें तो बाबूडोम का अंश बन जाता है। परन्तु जो सबसे ज्यादा निकम्मा और गधा होता है वह वकील या पत्रकार बन जाता है । पूरे समाज में पंडा गीरी करने का काम तो इन्हीं दोनों का है। सबसे ज्यादा आश्चर्य तब होता है कि जब किसी की वकालत नहीं चलती या कहें कि वकील नहीं बन पाता, तो वह जज बन जाता है और मार्ई लॉर्ड हो जाता है। कहानी यहीं नहीं रुकती जो वकील जज भी नहीं बन पाता, वह मंत्री बन जाता है और देश का मालिक हो जाता है । यह खूबसूरती सिर्फ हमारे जैसे मुल्कों में है। 
                               इक तरफ देश के सर्वोच्च न्यालय के माई लॉर्ड  जिनके हंथों में संविधान का अनुच्छेद १४२ द्वारा प प्रदत ब्रह्म वाण है तो दूसरे तरफ महामहिम राष्ट्रपति पति जिनके पास देश की कैबिनेट है सलाहकार के रूप में। दोनों ही जीवन में वकील नहीं बन पाए जिसके कारण संविधान के सर्वोच्च शिखर में विराजमान है। 
                 अनुच्छेद १४२ देश के सुप्रीमकोर्ट में बैठे माई लॉर्ड को असीमित सक्तिया प्रदत्त करता है वह न्याय कि स्थापना के लिए विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून को गैर संवैधानिक करार कर देते हैं। यही नहीं संविधान की मंशा की व्याख्या भी खुद ही करते हैं। माई लॉर्ड जब बहस के दौरान अहंकारी हो जाते हैं तो न्याय को तर्क या तथ्य के तराजू में न तौल के अपने सुविधा अनुसार न्याय प्रदान करते है। अहंकार की सीमा यंहा तक बड़ जाती है कि वह अपने से वरिष्ठ जजों व संविधान पीठ द्वारा पारित न्यायाइक व्याख्या को भी नहीं मानते, यनहा तक की पूर्व में खुद के द्वारा पारित कानून कि व्याख्या को भी नहीं मानते। इस तरह कि निरंकुश शक्तियां गलत हांथ में जब भी पड़ी हैं तो सिर्फ हंगामा बरपा है परन्तु आलोचक सुप्रीम कोर्ट की क्या पूंछ उखाड़ लेंगे आखिर हर किस को न्यालायन अवमानना का भय है कौन बाबा जेल जाना पसंद करेगा। वैसे भी बड़े मुश्किल से आजादी और संविधान मिला है मैं तो बिल्कुल भी पंगा नहीं लूंगा आप का मुझे बिल्कुल भी पता नहीं। 
          
                        इस देश का महमहिम राष्ट्रपति जो संविधान प्रमुख है और उन्हे सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद को देश की सवा सौ करोड़ जनता वोट देकर चुनती है बहुमत के साथ। इतने शक्तिशाली महामहिम को तो पता भी नहीं चल पता कि उनका प्रधानमंत्री कब किस राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया और कब ख़तम कर दिया। संविधान के प्रमुख सिर्फ संवैधानिक कट पुतली बने हुए हैं। 
                     आप दुखी हो रहे होगे यह सब पढ़ के, परन्तु मै तो बहुत खुश हूं वकील जों ठहरा। समाज, न्याय जाए भाड़ में मुझे तो सिर्फ कानूनी धाराओं से लेना देना है न्याय जीते या हरे हमे क्या करना। न्याय दिलवाने का पैसा मुझे थोड़ी कोई देता है मैं तो कानून के पैरवी का पैसा लेता हूं।
                              कभी शांत मन से हम लोग सोचते हैं कि हम ने स्वतंत्रता की लड़ाई क्यों लड़ी। आखिर हामारे पूर्वज क्यों बलिदान दिए। वह क्या सपना था उनके आंखों में, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने अपने प्राणों को बलिदान कर दिया। निश्चित तौर से हम मनन में पाएगें की वो स्वतंत्र, खुशहाल, शांति और न्याय प्रिय भारत कि कल्पना की थी आज के भारत की नहीं। आौर भारत के वर्तमान हालात के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। हम नकलची हो गए है। हर किसी विषय या वस्तु की नकल करते है जो मूलतः हमारी नहीं हैं।  हमने आपना गौरवपूर्न विरासत को नहीं सहेजा और न ही कभी गीता और वेद प्रद्दत ब्रह्म ज्ञान को जीवन और सामाजिक पद्धति में अपनाया। जिसके कारण देश में स्वांत्रता के बाद लगातार न्यायलयों, पुलिस स्टेशनों, हॉस्पिटलों की संख्या बढ़ी है जो कि भ्रष्ट व अवस्थ्य समाज की निशानी है और इसका प्रमुख कारण हमारे संविधान के अंदर आ स्थिरता और कानूनी दांव पेंच का जीवन में समा जाना। पूरा समाज संक्रमण काल से गुजर रहा है। परिवार, समाज और राष्ट्र पूर्णत: टूट रहा है हम वकील जो की सामाजिक अभियांत्रिकीय का कार्य करते हैं मूक दर्शक बन गए हैं क्यों की हम अक्षम हैं। हमारी  शिक्षा प्रणाली और समाज अच्छे इंजीनियर व डॉक्टर पैदा करते है न कि वकील। जब समाज ही बीमार होगा तो उस समाज में रहने वाले लोगों को डॉक्टर कब तक दवा करेगा।  सब को समझना होगा कि वकील समाजिक इंजीनियर है उसका कर्तव्य है कि वह ऐसी सामाजिक व्यस्था दे जिसमें मनुष्य अधिकतम संतुष्टि और कम से कम तनाव पूर्ण जीवन जी सकें। कहना तो बहुत कुछ है परन्तु आज सुबह दिल्ली एयरपोर्ट से फ्लाइट में बैठने के बाद विचारों के उफानों को सजोना सुरु किया और बंगलौर एयरपोर्ट में उतर गया हूं और न चाहते हुए भी विचारों को विराम देना पड़ा क्यों की बंगलौर हाई कोर्ट में मुझे आपील की सुनवाई में मई लॉर्ड को कानूनी दलीलों से प्रभावित जो करना है। आज और विचार व्यक्त करने का मेरे पास समय नहीं है और मै क्यों आप को जागृत काऊं, मेरा क्या है । मेरा तो धंधा चल ही रहा है और मेरे विचारों से आप को फरक भी नहीं पड़ता। आप तो दुनिया के सबसे ढीठ प्राणी है । जब संत कबीर ने समाज को सही पथ में नहीं ला सके तो में किस खेत की मूली हूं। परन्तु आजभी कबीर बाजार के,  बीच चौराहे में खड़ा होकर पुकार रहें है कि -
"कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ
  जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ”
मै भी ज्ञान कि उस मिशाल कि तरफ अपनी नजर लगा रहा हूं और कबीर को यह कहते सुना, तो मै भी आ खड़ा हुआ।  आप का तो, आप जाने, मुझे तो आप का कुछ भी पता नहीं।

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