काहे के राम ?
क्या राम कि श्रेष्ठता रावण और असुरों के संघार के कारण हुई, या सत्य पर असत्य कि विजय दिलाने से ? यह प्रश्नचिन्ह हमारे मस्तिष्क में हमेशा कौतुहल करता है, शायद आप के भी । मैं जब इस प्रश्न के समाधान के लिए निरंतर तर्क वितर्क कर रहा था तो पाया कि प्रश्न में स्वयं उत्तर समाहित था । असल में राम के प्रति हमारी आस्था उनके द्वारा स्थापित मानवीय आदर्शों, मर्यादाओं एवं रामराज्य से जुड़ी है जो कि मनुष्य को भवतरणी से पार कराने का प्लेटफ़ॉर्म प्रदान करता है ।
क्या वर्तमान् सामाजिक और राजनीतिक दौर में अयोध्या के भव्य मंदिर के गर्भगृह में विराजमान प्रभु श्रीराम क्या रामराज्य कि पुनर्स्थापना कर पायेंगे ? यह प्रश्न हम जैसे समाजविद् के सम्मुख फिर से खड़ा है जो कि मुझे बेचैन कर रखा है । आख़िर हम सब रामराज्य कि परिकल्पना को राम जन्म भूमि से क्यों जोड़ते हैं । क्या राम हमारे सिर्फ़ भगवान, या हिंदुओं कि धार्मिक भावनाओं के प्रतीक हैं, या राम जन्मभूमि और नवनिर्मित् भव्य रामलला मंदिर हिंदू कि धार्मिक भावनाओं और सांस्कृतिक विरासत का परिचायक है या उससे कहीं ज़्यादा ?
मुझ जैसे सामाजिक अभियांत्रिक के लिए श्रीराम और रामराज्य एक मानव सभ्यता एवं सनातन धर्म का वह दौर था जहाँ पर रामराज्य कि स्थापना राम के मानवीय भावनाओं एवं सामाजिक आदर्शों पर स्थापित थी । आख़िर क्या ऐसा था जो कि श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम या भगवान बनाता है ? इस प्रश्न के खोज में लगातार धर्मशास्त्र चर्चा और परिचर्चा का दौर ख़ुद से चलाया और मैं इस निष्कर्ष में पहुँचा कि राम का निजी स्वभाव राम को भगवान बनाया और राम द्वारा स्थापित सामाजिक मर्यादा रामराज्य कि स्थापना की ।
बात उन दिनों कि है जब राम प्रेमवश सबरी के जूठन बैर खाये । एक पुत्र कि तरह गिद्धराज जटायु को मुखाग्नि दी । प्राणो कि परवाह किये बिना वानर सेना ने राम के पक्ष में रावण से युद्ध किया । युद्ध कि मर्यादाओं का राम ध्यान रखते हुए सुलह के लिए युवराज अंगद को रावण के पास दूत के तौर पर भेजा । लँका में विजय प्राप्त करने के बाद भी लँका विभीषण को सौंप दी । अयोध्या नगरी में सीता को लाने से पहले सीता कि अग्नि परीक्षा, फिर धोभी द्वारा उलाहना पर सीता का परित्याग, अश्वमेद्ध युद्ध के जयघोष में सीता कि प्रतिमा के साथ यज्ञ में सहभागी होना ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाता है ।
श्रीराम का सार्वजनिक और निजी जीवन में उनका स्वभाव, आचरण एवं मर्यादा ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम् बनाती है । समस्त जीवों का श्रीराम् के प्रति प्रेम, विश्वास और आस्था उन्हें भगवान बनाती है ।
श्रीराम का स्वभाव और आचरण ऐसा था जिसका समस्त मानव, वानर, पशु, पक्षी पसंद करते थे और दूसरी तरफ़ हमारा स्वभाव एसा है कि जिसे हमारे माता - पिता, भाई बंधु कोई भी पसंद नहीं करता । राम ने तकरार विहीन एक समाजिक व्यवस्था स्थापित किया जिसे रामराज्य कहा गया । राम के आचरण एवं स्थापित मर्यादा में लोगों का विश्वास उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाता है तो दूसरी तरफ़ हमारे अमर्यादित आचरण से अविस्वास का यह आलम है कि हम पर हमारे माता पिता, भाई बंधु तक विश्वास नहीं करते । तब हमें प्रभु श्रीराम् कैसे प्राप्त होंगे । क्या हमारे आचरण के विषय में मंथन का समय नहीं आ गया है । हम अयोध्या में भव्य राम रामंदिर बना कर गर्भगृह में रामलला को विराजमान करके अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को तो पुनःस्थापित कर लिये हैं, परंतु रामराज्य कि परिकल्पना और रामराज्य कि पुनःस्थापना जब तक संभव नहीं होगी जब तक हम ख़ुद के निजी और स्वार्जनिक जीवन में मर्यादाओं का पालन नहीं करेंगे । अयोध्या नगरी के भौतिक स्वरूप कि पुनःस्थापना मात्र से रामराज्य क़ायम नहीं होगा । रामलला कि मूर्ति के दर्शन मात्र से भगवान राम प्राप्त नहीं होगे । बल्कि हमे प्रभु श्रीराम द्वारा स्थापित सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना होगा तभी इस भवसागर को पार करेगे। हमे ख़ुद को इस तरह करना होगा कि राम ख़ुद हममें समाहित हो जायें, अर्थात् हम ख़ुद राम लीन होकर राम हो जाएँ । कबीर दास कहते हैं कि :
भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं तो राम भजन से छूटी रे मोरे सर से टली बला।
माला फेरों, न कर जपों और मुख से कहूँ न राम, राम हमारा हमें जपे रे, हम पायो बिसराम ।
आपका कृतज्ञ !
संदीप एस तिवारी
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