"दहेज का बैण्ड-बाजा"

"दहेज का बैण्ड-बाजा"

"आज मेरे यार की शादी है, यार की शादी है मेरे दिलदार की शादी है....." के गाने कि धुन में "बैण्ड- बाजा" संग डांस शुरू  किया मैं, वक्त था  ग्रेजुएशन का फ्रेंड की शादी में , परंतु  लॉ  करते करते शादी में "डी.जे." से टपक पड़े दिलेर मेहंदी और डांस के बोल थे "हो गई तेरी बल्ले बल्ले, हो जाएगी बल्ले बल्ले....."। बस दो दोस्तों के शादी में 5 वर्षों का अंतर ही  "बैण्ड- बाजा" की धुन को बदल कर "डी.जे." में गाने के बोल ला दिए, दौर था सन् 1993 से 1999 का। क्यों ना  बदले "बैण्ड- बाजा" की धुन, "डी.जे.' के बोल, आखिर "बैण्ड पार्टी" दहेज के पैसे से किया गया था और दूल्हे का तिलक लाखों रूपए का जो चड़ा था। 

बढ़ते दहेज की धमक "डी.जे." के साउंड और गाने के बोल में स्पष्ट झलक रहे थें। हम सब दोस्त "डी.जे." के लाइटों के बीच डांस में मदमस्त थे और शादी के जश्न का नजारा "जनमास" से "द्वारचार" के बीच दिखता, जो कि चंद फलांगो तक की दूरियां कों घंटों में तब्दील कर रहा था और हम सब जश्न में सरोबार।  डांस की मस्ती बीच बारात द्वारचार लगी, तो मेरी नजर 'दुल्हन' के "बाप" से टकराई, जो सिर पर पगड़ी, तन पर कुर्ता - परदनी, आंखे झुकी और हांथ स्वागत में जुड़े हुए, एक अजीब सी  चेहरे पर खामोशी का परिदृश्य मेरे जहन पर कुछ यूं उतारा की "बैंड- बाजा" में डांस की शुमारी मेरे सिर से कुछ यूं गायब हुई जैसे गधे के सिर से सींग, मुझे क्या पता कि शादी में असली बैण्ड  दुल्हन के बाप का बजा था। घटनाएं रीवा राज्य में ही घटित हैं परंतु घटना स्थल का जिक्र सामाजिक नाफरमानी के भय से नहीं कर रहा हूं ।

 ऐसा नहीं है कि दोस्तों की शादी के दौरान  दहेज की धमक पहली बार सुनाई दी, बल्कि दहेज की धमक मुझे  बचपन में ही सुनाई पड़ गई थी जब सन्1983 के मई - जून के महीने में  मेरी अम्मा (नानी) जो बहुत गुस्से में थी और भड़की हुई थी वक्त मुखी और करुणा मौसी की शादी का और घटना मऊगंज में मेरे ननिहाल के आंगन की थीं जिसकी यादें अभी जहन में ताजा है। मुकदमा सिर्फ इतना था कि नानाजी, मम्मी और कला  मौसी की शादी जमीदारों के घर पर करने के बाद और उससे मिले कटु अनुभव से यह निर्णय लिया था की अब बच्चियों की शादी सरकारी नौकरी वाले दमाद से करनी है। दोनों बेटियों के लिए तो सरकारी दमाद मिल गए थे परंतु तिलक की राशि का द्वंद बरकरार था। मुखी मौसी की शादी में ₹8000 का तिलक और ₹2000 का तिलक का सामान  चढ़ा था परंतु करुणा के तिलक में लड़के वाले ₹10000 नगद और तिलक के सर सामान पर अड़ गए थे जिसे  पूरा किया गया था। यह हालत जाने माने वकील के थे तो आम जन की क्या बात करें।

मुझे याद आ रहा है वह गुजारा ज़माना जब रीवा राज्य में जमीदारों के घरों की बेटियों की शादी कभी भी पुश्तैनी जमीन के बिक्री के बिना संपन्न नहीं होती थी। लड़के की शादी और उस शादी में मोटा दहेज सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक था। मेरी चार बहनों की शादी में बड़े दादा और पापा ने मौके की जमीनों को बेचा ताकि लड़के वालों के सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप दहेज दे सके और खुद की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए शादी का भव्य आयोजन कर सके। मुझे ऐसे कई जमीदारों के घरों की कहानियां याद है जिन्होंने बेटी की शादी पर बांध बेचे‌ जिसमें रीवा राज्य का क्षत्रिय समाज प्रमुख  है।

मै चास्मदीद हूं कि किस तरह से तिलक में मिले पैसे का बंदरबांट खुले हाथों किया जाता था और उस लूट को अंजाम देते थे तिलक के फंक्शन में लाइटिंग व डेकोरेशन वाले, महंगे हलवाई, लाम्बा चौड़ा नाश्ते व खाने का मेन्यू,  बैंडबाज, डीजे लाइट, आतिशबाजीवाले व कार को सजाने वाले। दूल्हे को खुलेआम पैसे खर्चने की छूट दे दी जाती थी क्यों कि लाखो का  तिलक चढा था। जिस दूल्हे ने पूरा कॉलेज कैरियर जींस टीशर्ट में गुजारी हो शादी में वह रेमंड के शूटलेंथ का कोट पैंट सिलने का ऑर्डर दे रहा था। टेलर्स और शूट के सिलाई का भाव आसमान में था और शादी के हर रश्म  रिवाज में अलग अलग शूट बनवाएं जाते थे।।मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य महंगी शेरवानी की खरीदारी का लगता था जिसे द्वारचार के बाद कभी भी दूल्हा पूरे जीवन में नहीं पहनता । छोटे मोटे करेक्शन के साथ रीवा राज्य और उत्तर भारत के हालात अमूमन आज भी वाँही हैं।

 मुझे याद है की दहेज की मांग का पूरा मेन्यू समाज में तैयार था।  मुझे ध्यान आ रहा है की 80 के दशक के पहले शादी में  लड़के को  सोने कीअंगूठी, चैन, साइकिल, मरफी का रेडियो और एचएमटी की घड़ी चाहिए थी नेग में। परंतु 90 के दशक में तिलक की मांग में नगद रुपए के साथ  टी. वी. , फ्रिज, स्कूटर, मोटरसाइकिल ‌ चाहिए था।  यदि लड़का सरकारी अधिकारी, इंजीनियर या डॉक्टर हो तो उसे फिएट या मारुति कार चाहिए थी। सन् 2005 के बाद तो दहेज लेने व देने का सामाजिक कंप्टीशन चालू हो गया है जो करोड़ों रुपए तक पहुंच गया है। 

दिल्ली एनसीआर में तो मेरे दोस्त के बेटे के तिलक में लड़कीवालों  ने तिलक के दौरान बड़े-बड़े थाल में करोड़ों की नोट की गड्डी से भरकर दूल्हे को ढक दिया और पूछने पर मेरे दोस्त ने बड़े ताव से बोला की भाई गुर्जर समाज में मेरा बड़ा नाम है।  तो दूसरी तरफ पंजाबी समाज के फाइवस्टार शादी का चश्मदीद था जिसमे पचासों लाख रुपए तो खाने व शराब के बिल के थे । इस घटना का अनुभव मेरे एक दोस्त के बेटी की शादी  का है जो कई सालों से बेटी की शादी का लोन उतार रहा है। बैंगलोर में  तो मेरे दोस्त ने बेटी के शादी में  लड़की को सोने से लाद दिया  और मर्सिडीज की लंबी कार में लड़की की विदाई की। बाद में बता चला की वह यह सब सामाजिक रुतबा दिखाने के लिए किया था जिसकी कीमत "आयरानोड  की माइंस" को बेच कर चुकाई थी।

ऐसा नहीं है की दहेज की मार से बचने का लोग उपाय नहीं निकाल रहें है। दहेज की बढ़ती हुई समस्याओं से निबटने के लिए मध्यमवर्गीय  मां-बाप बेटी पढ़ाओ के नारे को बुलंद कर रखे हैं ताकि बेटी की शादी नौकरी व पैसे वाले दमाद से की जा सके। वाँही दहेज की समस्या और सामाजिक अपमान से निपटने के लिए लड़कियों ने खुद को आत्मनिर्भर बनाने का निर्णय लिया और शिक्षा को रोजगार मुख बनाने में लगी है। जब कोई बेटी डॉक्टर, इंजीनियर या मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रही होती है तो लड़की का बाप समाज में चौड़ा होकर चलता है । उसे अपनी बेटी की शादी में दहेज का डर नहीं लगता और यदि लड़की सरकारी नौकरी या अधिकारी बन गई तो फिर मां-बाप की बल्ले बल्ले। परंतु यह सौभाग्य हर मां बाप को प्राप्त नहीं होता और आज भी दहेज का दानव समाज के सामने तांडव मचा रखा है। समाज खामोश व मूकदर्शक है।

 खुद की नाकामियों को छिपाने के लिए मां-बाप लड़की के ऊपर स्वाबलंबी बनने का दबाव बना रखे है परंतु बेटी को स्वाबलंबी व     स्वाभिमानी बनाने के लिए उसे प्रॉपर्टी राईट नहीं देते। पुश्तैनी जमीन पर बेटियों को, बेटों के बराबर का अधिकार देने का विरोध करते हैं। मैंने इस विषय को कई बार अपने बड़े बुजुर्गों के सामने उठाया जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था व परंपरा की दुहाई देते हुए अपने पक्ष को रखा, जिससे मैं कभी संतुष्ट नहीं हुआ। वो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का हवाला देते हैं। और उनके हिसाब से  हमेशा लड़की अपने से उच्च कुल में दी जाती थी। जिससे लड़की को हमेशा संपन्न परिवार मिलता था। परन्तु जब मैं गौर करता हूं तो पाता हूं कि उच्च कुल का अर्थ हरेक समाज का भिन्न भिन्न था । जैसे ब्राह्मण समाज की यदि बात करें तो हम  दूल्हे के जाति,  वंश और डीह (उदगम) देखते थे परन्तु लड़के की निजी योग्यता व आर्थिक स्थिति को नजर अंदाज कर देते थे। परन्तु क्षत्रिय समाज में जमीदारी भी देखी जाती थीं और वैश्य समाज में लड़के के परिवार का धंधा भी देखा जाता था। इस शादी के ताने बाने में सबसे ज्यादा शादी के बाद जीवन का संघर्ष ब्राह्मण समाज की लड़कियों ने किया खासतौर से "सिंह तिवारी" जैसे समाज में, क्यों की "सिंह तिवारी" जमीदार थे परन्तु जन्हा लड़की की शादी की तो वो सिर्फ श्रेष्ठ ब्राह्मण थे परन्तु आर्थिक स्थिति उस समय सब की ठीक नहीं थी और हम सब गाहे बगाहे वो पुरानी परम्परा को ढोए जा रहें थे।  

 हमने अपनी मूर्खता व सामाजिक नाफरमानी के कारण "विवाह", जो परिवार निर्माण का सबसे बड़ा सामाजिक पर्व व  त्यौहार है, को सामाजिक कुरीतियां के द्वारा हंसिये में डाल दिया  है। हिन्दू धर्म में विवाह जीवन के "सोलह  संस्कारों" में से एक, जन्हा पर "वर-वधु" अग्नि के सात फेरो की बीच आजीवन सात वचन के पालन करने की प्रतिज्ञा करते हैं । पति-पत्नी, जन्म जन्मांतर के संबंध, जन्हा पर 'वधू ' सात जन्मों तक सिर्फ उसी वर कि कामना करती है और पति परमेश्वर होता है। पति - पत्नी  के संग  विवाह के संस्कारों  से बंधा परिवार जीवन कि वैतरणी को युगों से पार करा रहा था । हिन्दू विवाह व्यवस्था पूरे विश्व के मानव समाज के लिए अनुकरणीय  बना ही था  कि 'लॉर्ड मैकाले'  द्वारा प्रदत शिक्षा व्यस्था और 'पाश्चात्य संस्कृति' की नजर कुछ यूं लगी की युगों से चली आ रही विवाह व्यवस्था कब 'संस्कार' से  'संविदा' बन गयी हमे पता भी नहीं चला। 

 'विवाह' सोलह संस्कारों में से एक, क्यों न बने 'संविदा' आखिर हमने लॉर्ड मैकाले की प्रदात शिक्षा व्यस्था से  विद्वान 'विधिवेत्ता' और आधुनिक 'समाज- शास्त्री' जो पैदा कर दिए थे जिन्होंने 'हिन्दू मैरिज एक्ट, 1956' के अंतर्गत विवाह को संविदा बना दिया और जन्म- जन्मांतर के वैवाहिक संबंधों को 'तलाक' से तोड़ दिया। विवाह-विच्छेदन कि पैरवी करते हुए हम वकील कोर्ट में मुकदमों का अंबार कुछ यूं बढ़ाएं की सरकार  हजारों "फैमिली कोर्ट" की स्थापना  पूरे देश में करने के बाद भी पति- पत्नी के झगडे़ नहीं सुलझा सकी। आखिर बात उठी है तो दूर तलग जाएगी। क्यों पति - पत्नी के झगडे़ को हम वकील हवा न दे, आखिर हमारे पापी पेट का सवाल है। हमे क्या पता था कि पति - पत्नी के बीच नफरत की रोटी से सिकता हुआ  वकालत का धंधा हमे कुछ इस कदर जद में लेगा की खुद का परिवार बचाना मुश्किल होगा।

मैं पूछता हूं कि आखिर हम सब  गलतफहमी के शिकार क्यों  है। मै जानना चाहता हूं कि हमारा  जमीर कब जागेगा।   क्या आप महसूस नहीं कर रहें है की हमारी बहन बेटियां कितनी जिल्लत भारी जिन्दगी जी रहीं है और नईहर व पीहर के बीच घुटन व अपमान के बीच जीवन का संघर्ष कर रहीं हैं। क्या हमे महिलाओं के ऊपर होते शारीरिक, मानसिक और सामाजिक अपराध  दिखाई नहीं देते जिसके कारण लाखों बहन बेटियां आत्म हत्या के लिए विवश हैं या ससुरारल में हो रही क्रूरता की शिकार हो रहीं हैं। क्या हमे दिखाई नहीं पड़ता कि सामाजिक संघर्ष पुरष और महिलाओं के बीच इस हद तक आ गया है की सरकार स्थित को नियंत्रण करने के लिए पूरे देश में हजारों महिला पुलिस स्टेशन, वोमेनसेल, और फैमिली कोर्ट का निर्माण किया है। 

यदि हम समाजशास्त्रीय नजरिए से परिस्थियों व समाज में महिलाओं की स्थितियों का आकलन करें तो पाएंगे कि पुरुष प्रधान समाज में लड़की के जन्म के साथ मायूसी छा जाती थी और जश्न नदारत होता था खास तौर से 90 के दशक तक। यन्हा तक कि लड़के के जन्म और लड़की के जन्म में सामाजिक संस्कार भी भिन्न भिन्न होते थे। आज की तारीख में थोड़ा परिस्थितियों व सामाजिक सोच में थोड़ा करेक्शन हुआ है और मां -बाप, बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न करने के बड़े- बड़े दावे करते है; इसके बावजूद भी मूलभूत अंतर अधिकारों को लेकर आज भी बरकारा हैं;  और वह अंतर है प्रॉपर्टी के राइट को लेकर। यद्यपि सरकार और कोर्ट ने लंबे चौड़े कानून महिलाओं के प्रॉपर्टी राइट को  लेकर बनाए है परन्तु जमीनी हकीकत में सब नदारत हैं।

लड़की जन्म के बाद जब होश संभालती है तो उसे बताया जाता है कि यह घर और हर सामान भाई का है । शादी के बाद तुम ससुराल चली जाओगी। वन्ही से लड़की के दिमाग में असुरक्षा व हीनता की शुरुआत होती है। शादी के बाद ससुराल में सारी सम्पत्ति ससुर के नाम,  फिर पति के नाम और उनके बाद बच्चों के पास चली जाती है जिससे महिला जीवन पर्यन्त पिता, फिर पति और फिर बच्चों के आश्रय रहती है परिणामत: आजीवन मानसिक उत्पीड़न, शोषण का शिकार बनती है और कभी भी अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाती।  

बढ़ते हुए फैमिली कोर्ट और वूमेन सेल समाज के अंदर महिलाओं की असुरक्षा की स्थिति को बयां करते हैं। मै पूछता हूं कि कब  तक कानूनी वैशाखी से कमज़ोर महिला को सुरक्षा प्रदान करोगे। महिला के कमजोरी  को दूर करने का क्या कोई स्थाई समाधान नहीं हो सकता। हरेक के जहन में अलग अलग सुझाव उठ रहें होंगे परन्तु मुझे लगता है की सारी समस्याओं का सिर्फ एक ही सुझाव है की हम अपनी बेटियों को स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनाए जिससे वो मानसिक और सामाजिक तौर से खुद को मजबूत व सुरक्षित करें। इसका सबसे मजबूत और विधि संगत तरीका है उन्हें भी पैतृक संपत्ति पर लड़कों के बराबर का हक दिया जाय और कानून इस विचारधार की पैरवी करता है परन्तु हम कब सामाजिक न्याय करेगें इसका पता नहीं। हम इस पूर्वाग्रह से कब निकलेंगे की बेटी को पढ़ा लिखा अच्छी नौकरी करवा दो और धूम धाम से मोटा दहेज देकर अच्छी शादी करदो, परन्तु पैतृक सम्पत्ति पर कोई अधिकार मत दो क्यों की पूर्वजों ने काफी सोच समझ कर पुरुष प्रधान समाज बनया होगा। तो भाई साहब जब आज आप को बेटी की शादी में ज़मीन ज्यादत बेचने और गाढ़ी कमाई से पाई - पाई जोड़े पैसे से दहेज  देने की बारी है तो आप परेशान क्यों है। मेरा क्या ! मै तो लड़के वाले की तरफ से दहेज के पैसे से बैंड बाजा में लड़के के द्वारचार में नाचने आया हूं। हुर्रे 🙏

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