लठैत की मार !

मै लगातार दिल्ली मै हुई वकील और पुलिस के बीच झगड़े की वारदात पर ग्रुप मेंबरान के विचारों को पड़ रहा था और मुझे लगा कि मुख्य विषय पर चर्चा नहीं हो पा रही। मुझे हमेशा महसूस हुआ है कि मनुष्य को समाज में रहने के लिए शालीन, सहिष्णुता और सामंजस्य बिठा कर रहना चाहिए चाहे वह जिस भी सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर रहा हो। मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के बीच में नहीं आने चाहिए क्यों की मनुष्य एक रंगमंच कर्मी है। जन्हा तक वकील का प्रश्न है तो वह सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य करता है और उसे समाज को चलाने, लोगों के कार्य और व्यवहार के बीच में सामंजस्य बनाने की कला का माहिर होना चाहिए परन्तु सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य बहुत ही तप, मनन और साधना का है जो कि सामान्यतः मनुष्य के बस की बात नहीं। यह कार्य ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और समाजशास्त्री का है। जंहा तक पुलिस का प्रश्न है वह मनुष्य, समाज और कानून का रक्षक है। परन्तु दिक्कत दोनों जगह या कन्हे हर जगह तब पड़ती है जब मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों में आते हैं। पुलिस को लाठी और बंदूक दी जाती है तथा शारीरिक रूप से बलिष्ठ रखना पड़ता है ताकि वह कानून और आदेश के पालन में बल का प्रयोग कर सके या दूसरे शब्दो में कहें तो पुलिस सरकार और कानून के लठैत हैं जो कि आदेशानुसार लठ चलते हैं। वकील आपनी दलील देते वक्त यह भूल जाता है कि उसके दलील देने का स्थान न्यायालय या विचारमंच है या वह व्यक्ति जो कि बातो का जवाब बातों से दे ना की लाठी और बंदूक से। हम सभी जानते हैं कि पुलिस के निचले पदो की भर्ती में शारीरिक माप दंड प्रमुख आधार हैं और विद्यार्थी जीवन में हमने देखा है कि ज्यादातर विद्यार्थी जो कि आपस मार पीट करते थे और दिमाग में ज्यादा बल नहीं लगाते है वहीं पुलिस कर्मी हैं। Sub-inspector से ही पढ़े लिखे लोगों की भर्ती होती है और वो कई बार होशियार भी होते हैं परन्तु वकील साहब के बारे में यह अंतिम रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह पढ़े लिखे होते हैं। हं डिग्री धारी जरूर होतें है। देश के अंदर पिछले ४० दशक से जो विधि महाविद्यालयों के हालात हैं और जिसतरह से डिग्री मुफ्त में बट रही है वह किसी से छिपी नहीं है। निचले पुलिस बल के अंदर सरकार, समाज, वकील, न्यायालय के प्रति गुस्सा और असंतोष है वहीं sab-inspector से लेकर आईपीएस तक घूंश में लिप्त है और वह अपराध होने पर घूंस की संभावना तलाशता है वहीं वकील खुद को कानून और समाज का ठेकेदार समझता है और सोचता है कि काली कोट उसे ही कानून बना देती है और सिर्फ वहीं सही है और इसका कारण देश की विधिक साक्षरता है और मैंने महसूस किया है की वकील में भी उद्दंड और गैरसमजिक लोग है जिनके आचरण से समाज का सबसे सभ्य और जिम्मेदार वकील समाज अपमानित और व्यथित है। तीस हजारी कोर्ट की घटना पुलिस और वकील साहब जादों के बीच लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का परिणाम है। जब भी पुलिस खुद को सरकारी लठैत और वकील खुद को कानून समझने लगता है तो तीस हजारी की तरह घटना होती है। पुलिस किसी के ऊपर लाठी चलाए तो सारा समाज सरकारी गुंडागर्दी समझ कर चुप रह जाता है परन्तु यह बात दिल्ली के निचली अदालतों के वकीलों पर लागू नहीं होती क्यों की यांहा पर वकील भी जाट बुद्धि के होते हैं और वो पुलिस वालों से जादा तंदुरुस्त और हट्टे कट्टे होते हैं। दिल्ली में पुलिसबल हमेशा वकीलों से लगभग रोज मार खाता है परन्तु याहिबात कभी कभी बतंगड़ बन जाती है। पुलिस में सारे देश के अंदर गुंड्डों की भरमार है परन्तु दिल्ली में वकीलों के बीच में गुंड्डो की भरमार है। दिल्ली में वकील सबसे ज्यादा सबल है यहां तक कि देश की सरकार से भी ज्यादा जिसके कारण वह निरंकुश भी है। मीडिया में चर्चा का विषय है कि जब दिल्ली पुलिस का समर्थन पूरे देश के पुलिस संघटन कर रहें हैं तो हमारे गृहमंत्री अमित शाह और उनके कबाइन मंत्री क्यों दखल नहीं दे रहे हैं। मोदी और अमित शाह को बहुत अच्छी तरह से पता है कि वकीलों के विरूद्ध मुंह खोला तो राजनैतिक जीवन ख़तम और बाकी जीवन तिहाड़ जेल में बीतेगा। दिल्ली के वकीलों से किरण बेदी ने पंगा लिया था उसका हाल कुत्ते कि तरह बन गया था। उससे जूनियर दिल्ली पुलिस कमिश्नर बना और उसे रिजाइन करना पड़ा। अमित शाह ने किरण बेदी को ट्रंप कार्ड समझकर चीफ मिनिस्टर कैंडिडेट बनाया जिसका वकीलों ने विरोध किया और बीजेपी के सारे कैंडीडेट हार गए यान्हा तक किरणबेदी जोडॉक्टर हर्षवर्धन की सीट से लड़ी थी वह भी हार गईं। दिल्ली को प्रधानमंत्री या गृहमंत्री नहीं चलता बल्कि वकील और मीडिया चालती है। मीडिया को तो मोदी सरकार नियंत्रित कर लिया है परन्तु वकीलों को नियंत्रित करना मोदी और अमित शाह की औकात में नहीं क्यों की यानहा का वकील मोदी और शाह से ज्यादा ताकतवर, पैसावाला और बाहुबली है। सरकार और police officer कभी भी दिल्ली के वकीलों से पंगा नहीं लेते क्यों की सब को अंतिम परिणाम मालूम है और यह सब नाटक मै पीछले २० वर्ष से देख रहा हूं। देश समजिक संक्रमण काल से गुजर रहा है लोगों ने मर्यादा को त्याग दिया है। सिर्फ देश के अंदर आक्रोश और हताशा है क्यों कि प्रसंत्ता हम सब के बीच से गायब है। तीस हजारी की घटना पूरे देश को अचंभित किया है परन्तु मैंने पुलिस वालों की वकीलों के द्वारा पिटाई होने पर दिल्ली की आम जनता को खुश होते देख रहा हूं। पुलिस को समझना होगा कि समाज में उसके प्रति जबर्जस्त आक्रोश है और उसकी छवि गुंडो, भ्रष्ट और निकम्मे लोगों की बन गई है।

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