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Showing posts from June, 2021

लठैत की मार !

मै लगातार दिल्ली मै हुई वकील और पुलिस के बीच झगड़े की वारदात पर ग्रुप मेंबरान के विचारों को पड़ रहा था और मुझे लगा कि मुख्य विषय पर चर्चा नहीं हो पा रही। मुझे हमेशा महसूस हुआ है कि मनुष्य को समाज में रहने के लिए शालीन, सहिष्णुता और सामंजस्य बिठा कर रहना चाहिए चाहे वह जिस भी सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर रहा हो। मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के बीच में नहीं आने चाहिए क्यों की मनुष्य एक रंगमंच कर्मी है। जन्हा तक वकील का प्रश्न है तो वह सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य करता है और उसे समाज को चलाने, लोगों के कार्य और व्यवहार के बीच में सामंजस्य बनाने की कला का माहिर होना चाहिए परन्तु सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य बहुत ही तप, मनन और साधना का है जो कि सामान्यतः मनुष्य के बस की बात नहीं। यह कार्य ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और समाजशास्त्री का है। जंहा तक पुलिस का प्रश्न है वह मनुष्य, समाज और कानून का रक्षक है। परन्तु दिक्कत दोनों जगह या कन्हे हर जगह तब पड़ती है जब मनुष्य के निजी दुर्गुण उसके सार्वजनिक कार्यों में आते हैं। पुलिस को लाठी और बंदूक दी जाती है तथा शारीरिक रूप से

गाहे बगाहे स्वतंत्र !

मनुष्य के जीवन का सबसे अनमोल उपहार "स्वतंत्रता" है। स्वतंत्रता कि मूल भावना बहुत ही व्यापक है जो कि लोगो में समानता, समान अवसरों कि उपलब्धता, जीवन की सुरक्षा, सामाजिक न्याय आदि जैसे मूलतत्तों को समाहित करते हुए जीवन जीने की स्वतंत्रता, विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार हम भारतवासियों को हमारा "संविधान" देता है और आज के हि  दिन यानी २६ नवंबर सन १९४९ को  हम लोगों ने इसे अपनाया था। और क्यों ना अपनाते आखिर हजारों वर्षाें के बाद हमें राजाओं, मुस्लिम आक्रांताओं ,  इस्ट इंडिया कंपनी और अंत में ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी व भय से   १५ अगस्त सन् १८४७ से स्वतंत्रता जो मिली थी। आज सारा देश भारतीय संविधान को अपनाने की खुशी से सराबोर हैं भारतीय संविधान के प्रसंशा में आज बड़े बड़े कसींदे पड़े जा रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित  "संप्रभु" शब्द हमें बाहुबली होने का अहसास कराता है है क्यों कि लोकतंत्र में जनता के द्वारा जनता का शासन जो होता है। भारतीय संविधान को अपनाने के साथ ही क्या आप भी खुद को शासक समझने लगे?                           

स्वराज कि दरकार !

स्वतंत्रता दिवस मे जब राष्ट्र स्वयं की स्वतंत्रता कि द्वारख़ास्त लगा रखा हो और 135 करोड़ देशवासी स्वतंत्रता के जश्न में गुमान हो, तो स्वतंत्रता शब्द् की खुद कि स्वतंत्रता अपरिहार्य हो जाती है।  हम जश्न मना रहे हैं 15 अगस्त 1947 के सत्ता हस्तांतरण का जब ब्रिटिश हुकूमत ने देश की बागडोर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौपी थी और जश्न मे हम भूल गए थे की ब्रिटिश हुकूमत ने 14 अगस्त को भारतवर्ष के दो टुकड़े किए और पहला टुकड़ा पहले मोहम्मद अली जिन्ना के हाथों में सौंपते हुए बोला कि लो अपना पाकिस्तान, फलो फूलो और ऐश करो और दूसरा टुकड़ा पंडित नेहरू को सौंपते हुए बोला कि लो इंडिया खुद के लिए खुद से संघर्ष करो और वह संघर्ष हम आज भी कर रहे हैं।  हम आजादी के जश्न में यूं गुमान है की हमें ज़ैसे हमारी स्वतंत्रता मिल गई, पर भूल गए की भारतवर्ष अब इंडिया और पाकिस्तान दो मुल्क जो एक सभ्यता, एक संस्कृत कि धरोहर हैं, परंतु विभाजन में हिंदू - मुस्लिम में बटा और धर्म के आड़ पर कत्लेआम हुए। भारतवर्ष खुद के विभाजन को आज भी मूकदर्शक की तरह ताकता है और उसकी हम क्यो सुने, हम स्वतंत्रता के नशे में जो गुमान हैं और देश कि