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Showing posts from October, 2020

"कोरोंना भी परेशान है"

"कोरोंना भी परेशान है"    संकट के दौर में एक जिम्मेदार शहरी कि प्रतिक्रया व उसमे निहित मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति , सामाजिक औ‌र मानवीय जिम्मेदारियों को‌ निभाने कि ललक ही उस शहर को सभ्य, उन्नत व समर्थ बनाती हैं। किसी भी राष्ट्र का "मानव विकास सूचकांक" कि टेबल में उसकी उपस्थित क्रम ही उस राष्ट्र के नागरिकों की मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक व नागरिक दायित्वों के निर्वहन में उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। जब राज्य समर्थ शहरियों द्वारा संचालित होता है तभी वह प्राकृतिक, सामाजिक व संवैधानिक न्याय प्रदान कर पाता है। राज्य की क्षमताओं की अग्नि परीक्षा विपत्ति काल में सरकार द्वारा जन- धन की समस्याओं के समाधान में परिलक्षित होता है। निश्चिंत मत बैठिए, देश कोरोना महामरी से ग्रसित है। सरकार अग्नि परीक्षा से गुजर रही है और अब राष्ट्र का इम्तिहान है।                                              और दुनिया के स्वयंभू जो " प्रकृति" को धता बता कर, खुद को खुदा बना बैठे थे, महामारी के इस दौर में कितने लाचार हैं । हमे क्या करना खुदा की खुदाई से जब "खुदा" खुद से

टूटते परिवार- जुड़ते लोग

जब पुरुष प्रधान समाज में पुरुषार्थ खो चुके हो पुरुष, व पुरुषों की पारिवारिक व सामाजिक निर्णय लेने की क्षमता न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई हो, तो परिवार,‌ समाज व परंपराएं, पुरुषों के कमजोर वाजू को छोड़ कर, महिलाओं के मातृत्व दामन को थाम लेती हैं। आप घबराइए मत और पछताए  मत,  क्योंकि पुरुष खुद ही परिवार कि बागडोर ढीली की है जिसने महिलाओं को मौका दिया है और अब आप ज्यादा सुरक्षित है। हमारी नाफरमानी से संक्रमण काल से गुजरता हिंदू समाज और दम तोड़ती परंपराएं, राष्ट्रीय संस्कृति और विरासत को दो राहे पर खड़ी कर दी है। मुक़दमा दर्ज है समाज की अदालत में जन्हा पर हम सब गुनहगारों कि भांति कटघरे  में खड़े हैं। आज अदालत में मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त है।  गवाही आज समाजिक मर्यादा कि नाफरमानी का और  क्यो न चले मुकदमा ? आज हम मानवीय संवेदना हीन हो गये हैं और सामाजिक मर्यादा तार तार हो रही हैं। समाज कि ठेकेदारी मे हम भूल गए कि परिवार टूट रहे है और टूटते परिवारों  से हम समाज जोड़ रहें है।  आप का तो  पता नहीं, परन्तु टूटते परिवारों से समाज जोड़ने का प्रयोग मुझे अचंभित करता है। सच पूछिए तो मुझे यह प्रयोग डाइजेस्ट